केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की ओर से जारी आंकड़ों के विश्लेषण के बाद यह बात सामने आ रही है कि हमारी नदियां तेजी से सूख रही हैं। नदियों में जल भरने लायक बरसात होने में अभी कम से कम सौ दिन हैं। चिंता की बात यह है कि बर्फ से ढंके हिमालय से निकलने वाली नदियों- गंगा-यमुना के जल-विस्तार क्षेत्र में सूखा अधिक गहराता जा रहा है। सरकार भी चिंतित है कि गंगा बेसिन के 11 राज्यों के लगभग 2,86,000 गांवों में पानी की उपलब्धता धीरे-धीरे घट रही है। नदियों में घटता बहाव कोई अचानक नहीं आया है। यह साल-दर-साल घट रहा है। लेकिन नदी धार के कम होने का सारा दोष प्रकृति या जलवायु परिवर्तन पर डालना सही नहीं होगा।
हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बहकर नदियों में आता है। इसमें हिमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि शामिल होते हैं। तीन नदियां-गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से निकलती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः बरसात पर निर्भर होती हैं।
आंकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र में चला जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। जब छोटी नदियां थीं, तो इस पानी के बड़े हिस्से को अपने आंचल में संभाल कर रख लेती थीं। नदियों के सामने खड़े हो रहे इस संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है। जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलतः तीन तरह के संकट हैं-पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूषण।
धरती के तापमान में हो रही बढ़ोतरी के चलते मौसम में बदलाव हो रहा है, जिसके चलते या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम। ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ छेड़छाड़ के चलते भी उनमें पानी कम हो रहा है।
यदि उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों की गैर हिमानी नदियों की दुर्गति पर गौर करें, तो समझ आ जाएगा कि आखिर गंगा बेसिन में जल संकट क्यों है? अल्मोड़ा के जागेश्वर में गंगा का प्रवाह कभी 500 लीटर प्रति सेकंड था, जो आज महज 18 लीटर रह गया है। गैर हिमानी नदियां प्रायः झरनों या भूमिगत जल स्रोतों से उपजती हैं और साल भर इनमें पानी रहता है। जो विशाल गंगा मैदानी इलाकों में आती है, उसमें 80 फीसदी जल गैर-हिमानी नदियों से आता है और मात्र 20 फीसदी जल हिमनद से मिलता है।
अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हजार ऐसी छोटी नदियां हैं, जो उपेक्षित हैं और उनके अस्तित्व पर खतरा है। 19वीं सदी तक बिहार (झारखंड सहित) में कोई छह हजार नदियां हिमालय से उतर कर आती थीं, आज इनमें से महज 400 से 600 का ही अस्तित्व बचा है। मधुबनी, सुपौल में बहने वाली तिलयुगा नदी कभी कोसी से भी विशाल हुआ करती थी, आज उसकी जलधारा सिमट कर कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है। सीतामढ़ी की लखनदेई नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गईं। नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ व सूखा के दर्द की कहानी देश के हर जिले और कस्बे की है।
इन दिनों बिहार के 23 जिलों में बहने वाली 24 नदियां सूख कर सपाट मैदान हो गईं। इनमें से उत्तर बिहार की 16 और दक्षिण बिहार की आठ नदियां हैं। इन सभी नदियों की कुल लंबाई 2,986 किलोमीटर है। इसमें लगभग 670 किलोमीटर क्षेत्र में गाद भर गया है। अंधाधुंध रेत खनन, जमीन पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थायी निर्माण ही छोटी नदियों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकॉर्ड नहीं है, उन्हें नाला बता दिया जाता है। जिस साहिबी नदी पर शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, अब उसका बहुत-सा रिकॉर्ड ही नहीं हैं।
वैसे तो हर नदी समाज, देश और धरती के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन बड़ी नदियों से ज्यादा छोटी नदियों पर ध्यान देना अधिक जरूरी है। छोटी नदियों के मिलने से ही बड़ी नदियां बनती हैं। यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा, तो बड़ी नदियां भी सूखी रहेंगी। यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा, तो वह बड़ी नदी को भी प्रभावित करेगा।