भारतीय जेलों में क्षमता से अधिक बंदियों को रखे जाने के कारण उत्पन्न नारकीय स्थितियां न केवल संयुक्त राष्ट्र के नियमों का, बल्कि मानवाधिकारों का भी उल्लंघन है। यह वेदना किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता की नहीं, बल्कि स्वयं गृह मंत्रालय के अंतर्गत निदेशक (एसआर) प्रवीन कुमारी सिंह द्वारा सभी राज्यों के प्रमुख सचिव गृह और कारागार तथा पुलिस प्रमुखों के लिए नौ मई, 2011 को जारी सर्कुलर में व्यक्त की गई है। जेलों की इस स्थिति पर संसद में भी निरंतर चिंता प्रकट की जाती रही है।
जेलों में क्षमता से अधिक संख्या में एक साथ बंदियों को रखे जाने से एक-दूसरे में बीमारियों के फैलने की आशंका ज्यादा होती है। मानवाधिकारों के उल्लंघन, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और न्याय-आधारित विकल्पों की अनुपस्थिति के कारण जेलों में बंद लोगों के स्वास्थ्य की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जेलों का भौतिक बुनियादी ढांचा, भीड़-भाड़ का खतरा और कैदियों की लगातार आवाजाही से टीबी जैसी बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ जाता है।
विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाले भारत की जेलें भी भरी रहती हैं। लॉन्सेट पब्लिक हेल्थ जर्नल में प्रकाशित एक वैश्विक अध्ययन के अनुसार, भारत में कैदियों को सामान्य आबादी की तुलना में तपेदिक (टीबी) होने का खतरा पांच गुना अधिक है। जर्नल के जुलाई, 2023 संस्करण में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि भारत की जेलों में प्रति एक लाख कैदियों पर टीबी के 1,076 मामले थे। शोधकर्ताओं ने राष्ट्रीय स्तर पर तपेदिक की घटनाओं की दर और जेलों में भीड़-भाड़ के बीच एक सीधा संबंध पाया। विशेषज्ञों के अनुसार, जेलों में भीड़-भाड़ और वेंटिलेशन की कमी के चलते तपेदिक (टीबी) रोगियों की संख्या अधिक पाई जाती है। वर्ष 2017 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इंफेक्शियस डिजीज में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भारत की जेलों में टीबी के इलाज और जांच की व्यवस्था का अध्ययन किया, तो पाया कि निदान या डाइग्नोसिस की केवल 18 प्रतिशत, इलाज की 54 प्रतिशत और समय-समय पर जांच की 60 प्रतिशत जेलों में ही व्यवस्था थी।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ‘प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया रिपोर्ट-2022’ के अनुसार 31 दिसंबर, 2022 को भारत की जेलों में कुल 5,73,220 लोग बंदी थे, जबकि देश की कुल 1,330 जेलों में कुल क्षमता 4,36,266 कैदियों की ही थी। इस प्रकार देखा जाए, तो इन जेलों में क्षमता से 131.4 प्रतिशत अधिक बंदी रखे गए थे। ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना, मणिपुर और नगालैंड जैसे कुछ राज्यों में क्षमता से कम बंदी थे, जबकि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर जैसे कुछ राज्यों की जेलों में भेड़-बकरियों की तरह बंदी ठूंसे जाते हैं। उत्तराखंड जैसे शांत और छोटे राज्य की जेलों में 31 जनवरी, 2024 तक कुल 3,461 बंदियों की क्षमता के विपरीत 6,603 कैदी बंद थे। इन बंदियों में से लगभग 75 प्रतिशत विचाराधीन कैदी थे।
उक्त जेल सांख्यिकी के अनुसार, जेलों में बंद सभी बंदियों में केवल 1,33,415 बंदी ही सजायाफ्ता थे और शेष 4,34,302 विचाराधीन कैदी थे। इन विचाराधीन कैदियों में से कई ऐसे भी हैं, जो अदालत द्वारा दोष सिद्ध होने से पहले ही पांच साल से अधिक समय से जेलों में सजा काट रहे हैं। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा द्वारा 6 फरवरी, 2024 को लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, भारतीय जेलों में दो से तीन साल से 33,980 विचाराधीन कैदी, तीन से पांच साल से 25,869 विचाराधीन कैदी और पांच साल से अधिक समय से 11,448 विचाराधीन कैदी फैसले का इंतजार कर रहे थे। इनमें से कुछ निर्दोष भी हो सकते हैं और कुछ को कम सजा भी मिल सकती है, मगर वे पहले ही अकारण सजा काट रहे हैं।
इन भीड़-भाड़ वाली जेलों में सामान्य मानवीय सुविधाओं का अभाव तो रहता ही है, साथ ही स्वास्थ्य सुविधाओं का भी भारी अभाव रहता है, जिस कारण कैदी जेलों में दम तोड़ते रहते हैं। जेल सांख्यिकी के अनुसार, देश की जेलों में वर्ष 2022 में 1,995 मौतें हुईं, जिनमें 1,773 प्राकृतिक और 159 अप्राकृतिक मौतें थीं, जिनमें आत्महत्याएं भी शामिल थीं। प्राकृतिक मौतों में तपेदिक जैसी बीमारियां शामिल थीं। वर्ष 2022-23 में भारतीय जेलों के लिए कुल बजट 8,725 करोड़ रुपये आवंटित किया गया था, जिसमें से 7,781.9 करोड़ रुपये ही खर्च हो पाए। अतः जेलों की व्यवस्था सुधारने पर भी ध्यान देना चाहिए।