व्यय बजट: चुनावी अर्थशास्त्र की चुनौतियां, क्या सार्वजनिक खर्च वास्तव में है कोई मुद्दा

by Kakajee News

अट्ठारहवीं लोकसभा के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और कुछ ही दिनों में पहले चरण का मतदान भी होने वाला है। राजनीतिक दलों के साथ चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार जोर-शोर से चुनाव प्रचार में लगे हैं। अक्सर चुनाव के दिनों में चुनावी खर्च की चिंता जताई जाती है और बढ़ते चुनावी खर्च का तर्क देकर ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ पर भी विचार किया जाने लगा है।

 

जहां तक चुनावों में होने वाले खर्च की बात है, तो वैश्विक स्तर पर चुनाव कराने की प्रत्यक्ष सार्वजनिक वित्तीय लागत काफी भिन्न होती है और विभिन्न देशों के बीच और देश के भीतर भी चुनावी लागत अलग-अलग होती है। सामान्य अर्थों में देखें तो, अपने देश में केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न चुनावों पर सार्वजनिक खर्च में प्रति वर्ष 19.98 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2017-18 में चुनाव पर केंद्र सरकार के सार्वजनिक व्यय की लागत 1322.22 करोड़ रुपये थी, जो वर्ष 2024-25 के बजट आवंटन में बढ़कर 2724.26 करोड़ रुपये हो गई है। अब तक चुनावों पर सार्वजनिक लागत का सबसे उच्चतम स्तर वर्ष 2022-23 में दर्ज किया गया है, जो 3775.42 करोड़ रुपये था।

इस चुनावी खर्च में छह प्रमुख मदें शामिल हैं, जो इस प्रकार हैं -निर्वाचन अधिकारियों पर किया जाने वाला खर्च, मतदाता सूची तैयार करने और उसकी छपाई पर खर्च, लोकसभा और राज्य/केंद्रशासित प्रदेशों की विधानसभा, विधान परिषद के चुनाव के संचालन के लिए किया जाने वाला खर्च, पंचायतों/स्थानीय निकाय चुनावों के संचालन के लिए किया जाने वाला खर्च, आदि और चुनाव संबंधी अन्य खर्च। जैसा कि सार्वजनिक व्यय की इन व्यापक मदों से स्पष्ट है, ये मुख्य रूप से केंद्र सरकार द्वारा चुनाव कराने के लिए किए जाने वाले प्रशासनिक खर्च हैं।

भारत सरकार के कुल व्यय बजट, जो लगभग 45 लाख करोड़ रुपये है, में चुनावी खर्च बहुत छोटी-सी रकम है। लिहाजा, इस बात पर विचार करना जरूरी है कि क्या चुनाव पर सार्वजनिक खर्च वास्तव में कोई मुद्दा है।

आइए, अब जरा चुनावों के अर्थशास्त्र पर भी विचार कर लेते हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा चुनावों की घोषणा से लेकर चुनाव के बाद नई सरकार के गठन तक, चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के खर्च में अप्रत्याशित बढ़ोतरी होती है। उम्मीदवारों द्वारा चुनाव संबंधी खर्च में बढ़ोतरी को अक्सर अल्पावधि में उपभोग खर्च को बढ़ावा देने वाला माना जाता है। अल्पावधि में उपभोक्ता बाजार पर चुनावी खर्च के लाभ अलग-अलग होते हैं और इसका आर्थिक प्रभाव विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा की चुनावी प्रकृति समेत कई कारकों पर निर्भर करता है।

हालांकि चुनावी प्रतिस्पर्धा की प्रकृति का सार्वजनिक वित्त पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है। चुनाव के बाद जो राजनीतिक दल जीत हासिल कर सरकार का गठन करता है, उस सरकार द्वारा शुरू की गई सार्वजनिक नीतियों का सार्वजनिक खर्च पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। ऐसे खर्चों का विकास, राजकोषीय संतुलन और मानव विकास पर दीर्घकालीन असर पड़ता है। हाल के वर्षों में चुनाव पूर्व किए गए वादे के बड़े सार्वजनिक खर्च प्रतिबद्धता में तब्दील होने का एक बेहद दिलचस्प उदाहरण महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) अधिनियम है। हमें चुनाव पूर्व किए गए इस तरह के वादे के ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे, जिन्होंने सार्वजनिक खर्च को बढ़ाने के साथ नई सार्वजनिक नीतियों का भी निर्माण किया है।

भारतीय संविधान के पहले अनुच्छेद के अनुसार, विभिन्न राज्यों का एक संघ है। लिहाजा, एक संघीय देश में राष्ट्रीय निर्वाचन और राज्यों के निर्वाचन की चुनावी प्रतिस्पर्धा अलग-अलग होनी चाहिए, खासकर तब, जब राष्ट्रीय सरकार की भूमिका राज्यों की सरकारों से बहुत अलग हो। हालांकि हमारे अपने देश भारत में राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले वादे यह अंतर करने में विफल रहते हैं। राजनीतिक वादों से इस अंतर को समझना भी मुश्किल होता है।

केंद्र और राज्यों, दोनों के चुनाव में किए जाने वाले वादे बड़े पैमाने पर परिवारों को लाभ पहुंचाने के लिए पुनर्वितरण खर्च पर केंद्रित होते हैं। पुनर्वितरण खर्च उसे कहते हैं, जो संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण से संबंधित होते हैं, इसलिए इस मामले में राज्य कुछ हद तक केंद्र पर भी निर्भर होते हैं। इसके परिणामस्वरूप समस्या यह पैदा होती है कि चुनाव के बाद केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारियों में कार्यात्मक टकराव पैदा होता है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि केंद्र और राज्यों की सरकारें एक ही तरह की सेवा या सुविधा उपलब्ध कराने का काम करती हैं। संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच संसाधनों और जिम्मेदारियों का विभाजन स्पष्ट है।

संसाधनों के सांविधानिक विभाजन को देखते हुए स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और कृषि जैसे ज्यादातर पुनर्वितरण खर्च राज्य स्तर के होते हैं। आदर्श रूप में राज्यों के चुनाव इस तरह के पुनर्वितरण के मुद्दों पर लड़े जाने चाहिए। कानून-व्यवस्था की बहाली भी राज्य का विषय है।

इसलिए राज्यों के चुनाव कानून-व्यवस्था और शासन (गवर्नेंस) के मुद्दों पर लड़े जाने चाहिए। जबकि राष्ट्रीय चुनाव आदर्श रूप में अखिल भारतीय स्तर पर बुनियादी संरचनाओं के विकास, रेलवे, रक्षा और विदेशी मामलों जैसे राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े जाने चाहिए। लेकिन अपने देश में वास्तविकता बिल्कुल अलग है।

हालांकि यह भी नहीं कहा जा सकता कि प्रमुख पुनर्वितरण संबंधी चिंताओं को लेकर राष्ट्रीय चुनावी वादों की कोई भूमिका नहीं है। कहने का मूल तात्पर्य यह है कि यदि संविधान द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारियों को राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी घोषणापत्र में मूलभूत सिद्धांतों के रूप में स्थान दिया जाता है, तो चुनाव के बाद सरकार का गठन होने पर चुनावी वादों को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा और ऐसे वादों को पूरा करने में किसी तरह की परेशानी नहीं आएगी।

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