जोखिम तो हर टीके में होते हैं, ईमानदार संवाद के साथ जनता को स्वास्थ्य व्यवस्था पर भरोसा दिलाना जरूरी

by Kakajee News

जैसे ही एंग्लो-स्वीडिश फार्मा कंपनी एस्ट्राजेनेका ने ब्रिटिश अदालत में यह स्वीकार किया कि उसकी कोविड-19 वैक्सीन कुछ दुर्लभ मामलों में टीटीएस (थ्रोम्बोसिस थ्रोम्बोसाइटोपेनिया सिंड्रोम) का कारण बन सकती है, भारत में खलबली मच गई। इसे स्वास्थ्य एवं विज्ञान की कम समझ रखने वाले सोशल मीडिया एन्फ्लुएंसर ने और तेजी से बढ़ाया। टीटीएस की वजह से लोगों में रक्त के थक्के जम जाते हैं और प्लेटलेट्स में भी कमी आती है।  ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन, जिसे कोविशील्ड नाम दिया गया था, को भारत में पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ने तैयार किया और बेचा था।

चूंकि देश में इन दिनों चुनावी मौसम है, इसलिए अचानक ही यह मुद्दा सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच राजनीतिक खेल का हिस्सा बन गया। एस्ट्राजेनेका ने दुनिया भर से अपने कोविड-19 टीके को वापस मंगवाने की पहल की। लेकिन यह मुद्दा खबरों में बना हुआ है। थाईलैंड के अनुसार देश भर में दी गई 4.87 करोड़ खुराक में से केवल सात मामलों में टीटीएस के संदिग्ध मामले पाए गए, जो खतरे की दर को कम दर्शाता है। भारत में इसके प्रति घबराहट का एक मुख्य कारण घरेलू राजनीति है। भारत ने दुनिया का सबसे बड़ा कोविड-19 टीकाकरण अभियान चलाया, जो मुख्यतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा। अब सत्ताधारी पार्टी को घेरने वाले सोशल मीडिया एन्फ्लुएंसर और विपक्षी नेता एस्ट्राजेनेका वैक्सीन विवाद में कूदकर राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं।

अब तक हम जानते हैं कि एस्ट्राजेनेका वैक्सीन के दुष्प्रभाव बहुत ही दुर्लभ हैं। 2021 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी इसका समर्थन किया। अप्रैल 2021 में डब्ल्यूएचओ ने कहा था, ‘नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर वैक्सजेवरिया और कोविशील्ड टीकों के साथ टीटीएस का जोखिम नगण्य जान पड़ता है। ब्रिटेन के आंकड़ों से पता चलता है कि टीका लगवाने वाले दस लाख वयस्कों में से चार मामलों में टीटीएस का जोखिम था। यानी ढाई लाख पर एक मामला, जबकि यूरोपीय संघ में यह दर अनुमानित रूप से एक लाख पर एक मामला है। कोविड-19 टीकाकरण के बाद टीटीएस जोखिम को लेकर देशों को इसके हानि-लाभ का विश्लेषण करना चाहिए, जो स्थानीय महामारी विज्ञान, टीकाकरण के लिए लक्षित आयु वर्ग और वैकल्पिक टीकों की उपलब्धता पर विचार करता हो। इन दुर्लभ दुष्प्रभावों के जोखिम में भौगोलिक आधार पर भिन्नता हो सकती है। इसलिए सभी देशों में टीटीएस के संभावित मामलों का आकलन महत्वपूर्ण है।’

साक्ष्यों से पता चलता है कि वैक्सीन की पहली खुराक लेने के कुछ दिनों या हफ्तों बाद टीटीएस के लक्षण सामने आते हैं, न कि वर्षों बाद। यदि वैज्ञानिक समुदाय को कोविशील्ड वैक्सीन के संभावित दुर्लभ दुष्प्रभावों के बारे में पता था, तो फिर लोगों में इतनी दहशत क्यों है? इसका मुख्य कारण है कि टीका संबंधी प्रभावी संदेश के प्रसार के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए गए। प्रत्येक टीके के कुछ जोखिम होते हैं, लंबे समय से प्रचलित टीके के भी। लेकिन गंभीर दुष्प्रभाव दुर्लभ हैं। इसके अलावा दुष्प्रभावों से संबंधित आंकड़े इकट्ठा करने का तंत्र भी पारदर्शी नहीं था और टीकाकरण के बाद के दुष्प्रभावों के बारे में लोगों को जागरूक करना प्राथमिकता में नहीं था। इससे गलतफहमी पैदा हुई। हम चिंताओं को नकार नहीं सकते। कोविशील्ड समेत हरेक टीके के दुष्प्रभाव होते हैं, इसकी पूरी जांच होनी चाहिए।

लोगों का विश्वास कायम करना जरूरी है, जो टीकाकरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य का आधार है। भारत में कोई संगठित टीका विरोधी आंदोलन नहीं है, फिर भी भारत को पोलियो मुक्त होने में कई दशक लगे। मुख्यत: उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों, खासकर अल्पसंख्यक समुदाय में छोटे बच्चों में टीका लगवाने को लेकर आपत्ति थी। उनके भय को दूर करने के लिए काफी प्रयास करने पड़े थे। एनएफएचएस-5 (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) 2019-21 के अनुसार, देश में पूर्ण टीकाकरण कवरेज 76.1 प्रतिशत है। इसका मतलब है कि चार में से एक बच्चा जरूरी टीकों से वंचित है। टीके के बारे में एक खुले ईमानदार संवाद की सख्त जरूरत है। जनता के भय को दूर कर यह भरोसा दिलाने की जरूरत है कि स्वास्थ्य व्यवस्था उन्हें निराश नहीं करेगी।

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