चुनावी मौसम में गन्ना किसानों की गुहार, सियासी वादे वास्तविकता से दूर; क्या किसानों की पार्टी ही समाधान

by Kakajee News

देश 18वीं लोकसभा के लिए सांसद चुनने में लगा हुआ है। हर पार्टी लुभावने वादों से मतदाताओं को रिझाने में लगी है। मगर कृषि प्रधान इस देश में कोई भी पार्टी किसानों के संकट दूर करने की बात नहीं करती। कुछ पार्टियों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की बात की है, पर फसल की लागत कैसे तय की जाएगी, इस पर कोई चर्चा नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश में करीब पांच करोड़ गन्ना उत्पादक किसान परिवार हैं और देश की आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा गन्ना उगाने से जुड़ा है, पर उनकी गुहार कोई नहीं सुनता।
हालांकि उत्तर प्रदेश के पीलीभीत की सभा में प्रधानमंत्री ने गन्ना की बात की और कहा कि राज्य के मुख्यमंत्री ने गन्ना किसानों के लिए बहुत कुछ किया है, जिससे किसानों का जीवन बहुत बेहतर हो गया। गन्ना किसानों का जो भी भला हुआ है, वह उच्च और सर्वोच्च न्यायालय
के माध्यम से हुआ है। उच्चतम न्यायालय ने गन्ने का रेट (एसएपी) निर्धारित कराने का अधिकार दिया, नहीं तो किसानों को एक तरफ केंद्र द्वारा निर्धारित गन्ना मूल्य मिलता और दूसरी तरफ मिल द्वारा 1996 से 2020 तक दी गई पर्चियों के कारण किसानों को प्रति
एकड़ लगभग चार से पांच लाख रुपये मिलों को लौटाना पड़ता, क्योंकि हर पर्ची पर लिखा था कि लेन-देन सुप्रीम कोर्ट के अंतिम आदेश के आधार पर होगा। मिल मालिक राज्य और केंद्र सरकार द्वारा घोषित गन्ना रेट का फर्क हर किसान से वसूलते।

यूपी में गन्ना रेट की लड़ाई 1996-97 के गन्ना सत्र में शुरू हुई, जब यहां भाजपा व बसपा की सरकार थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मिल मालिकों की रिट याचिका में 11 दिसंबर,1996 को आदेश देकर राज्य सरकार को गन्ना का रेट तय करने से मना कर दिया था, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट के आदेश पर रोक नहीं लगाई थी। संविधान पीठ के फैसले से राज्य सरकार को रेट तय करने का अधिकार मिला। संविधान पीठ ने पांच मई, 2004 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ की रिट याचिका 1997 को बरकरार रखा, जिसमें किसानों को विलंब से गन्ना मूल्य मिलने पर ब्याज देने को कहा  था। सरकार ने ब्याज देने का आदेश तो जारी किया, लेकिन जब किसानों को ब्याज का पैसा नहीं मिला, तो किसान मज़दूर संगठन ने 2006 में रिट याचिका दाखिल की और किसानों को 1996 से अब तक का ब्याज दिलवाने की गुजारिश की।

किसानों ने अंतर मूल्य देने के लिए रिट याचिका दाखिल की। एक सोसाइटी एक रेट और एक मिल एक रेट के आधार पर पेराई सत्र 2009-10 में राज्य सरकार द्वारा घोषित 165 रुपये प्रति क्विंटल के बजाय आखिरी पर्ची पर 260 रुपये मिला। 2011-12 के गन्ना मूल्य एवं विलंब पर ब्याज देने के लिए रिट याचिका 6429/2012 दाखिल हुई थी। एक मई, 2024 को चार याचिकाएं हाईकोर्ट में लगी थीं। सरकार ने अपने जवाब में ब्याज एवं अंतर मूल्य देने से इन्कार कर दिया। मिल मालिकों के अधिवक्ता ने कहा, अगर किसानों को 1996 से ब्याज देंगे, तो मिलें बंद हो जाएंगी। हाईकोर्ट ने सरकार से 1996-97 से आजतक का गन्ना भुगतान, जिसमें विलंब होने पर ब्याज का भुगतान भी शामिल है, का पूरा ब्योरा मांगा है। अगली सुनवाई 27 मई को होगी।

वर्ष 2014 में जब हाईकोर्ट ने भुगतान के विलंब पर ब्याज देने का आदेश दिया, लेकिन मिल मालिकों की अर्जी पर तत्कालीन सरकार ने 2012-15 तक का ब्याज माफ कर दिया था, जिसे हाईकोर्ट ने 2017 में खारिज कर दिया और गन्ना आयुक्त को चार महीने में इसका फैसला करने के लिए कहा। जब गन्ना आयुक्त ने एक साल तक कुछ नहीं किया, तो उच्च न्यायालय ने गन्ना आयुक्त को तलब किया, उसके बाद 2019 में आयुक्त ने फैसला दिया कि घाटे में चल रही मिलें सात फीसदी और बाकी मिलें 12 फीसदी ब्याज देंगी। आज तक किसानों को यह पैसा नहीं मिला है। दिसंबर 2022 में जब हाईकोर्ट ने कड़ा रुख लिया, तो राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दे दी। यह अर्जी भी सरकार ने उस याचिका में लगाई, जिसमें सरकार द्वारा गन्ना भुगतान के विलंब पर ब्याज माफ करने के अधिकार को चुनौती दी थी।

राजनीतिक पार्टियां इस तरह वादे करती हैं, पर वास्तविकता कुछ और होती है। क्या किसानों को अंततः अपनी नई पार्टी बनाने से ही न्याय मिलेगा?

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