रायगढ़ को छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी के विशेषण से विभूषित किया जाता है। रायगढ़ में संगीत कला और साहित्य की सुदीर्घ समृद्ध परंपरा है।रायगढ़ राजदरबार संगीतज्ञों, कला मनीषियों,साहित्य मर्मज्ञों की साधना एवं आश्रय स्थली भी रही है। राजदरबार में कला साधकों को पर्याप्त संरक्षण व सम्मान प्राप्त होता था।संगीत सम्राट राजा चक्रधर सिंह के राजदरबार के सम्मानित मृदंगवादक जगदीश सिंह ‘ दीन ‘ मृदंगार्जुन थे। जिनकी ख्याति चतुर्दिक फैली थी।संगीत जगत में बहुत सम्माननीय नाम था।उनकी कलात्मक और चमत्कारिक पखावज वादन के सब कायल थे।गणितकारी तो अद्भुत थी । उनके बारे में यह कहा जाता था कि “दम छोड़ दे, सम न छोड़े”। आपको 13 मार्च 1935 को प्रथम पुत्र रत्न के रूप में अनमोल रत्न प्राप्त हुआ जिसका नाम अपने बड़े ही मनोयोग से वेदमणि सिंह ठाकुर रखा ।
अपने पिताश्री के सानिध्य में कठिन तपस्या व साधना से बहुत कम उम्र में ही वेदमणि सिंह ठाकुर तबले की कलात्मक ,आकर्षक, चमत्कारिक बोलो, गणितकारी और विद्वता पूर्ण संगत के लिए संगीत जगत में प्रकाशित होने लगे,ख्याति बढ़ने लगी थी। कलागुरु के नाम से संबोधित किया जाने लगा।पिताश्री जगदीश सिंह ‘ दीन ने उन्हें सभी चकाचौंध ,प्रशंसा और मंचीय आकर्षण से बचने की कठोर हिदायत देते हुए तपस्या और साधना में मन लगाने के लिए प्रेरित करते रहते। उनका यह स्पष्ट मानना था कि – “संगीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं वरन एक तपस्या है,साधना है। यह ईश्वर की अनमोल देन है।” कला गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर ने भी अपने पिताश्री के आज्ञा व आदर्श का अनुसरण अनुशासित शिष्य और आदर्श पुत्र की तरह करते रहे।
कला गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी तबला प्रवीण में विशेष योग्यता के साथ भारत में प्रवीण्य सूची में द्वितीय स्थान प्राप्त कर रजत पदक से सम्मानित हुए।गायन व सितारवादन में संगीत प्रभाकर प्रथम स्थान से उत्तीर्ण हैं। वहीं रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से स्नातक हैं। संगीत के साथ साथ आपका रुझान साहित्य साधना में भी रहा। पहले तबले के चमत्कारिक ,अद्भुत गणितकारी और कलात्मक बोलों ,रागों,बंदिशों की रचना करते जो प्रयाग संगीत समिति ईलाहाबाद (प्रयागराज) की संगीत जगत की एकमात्र प्रतिष्ठित प्रसिद्ध मासिक पत्रिका में विशेष प्रमुखता से हर माह प्रकाशित होती।बड़े बड़े मूर्धन्य संगीतज्ञों की विशेष टिप्पणियां ,सराहना और प्रशंसा के साथ नए नए बालों बंदिशों की रचनाएं नियमित भेजने प्रकाशित करने का आग्रह होता। देश के राष्ट्रीय मंचों संगीत सम्मेलनों में आपकी बोलों,बंदिशों और रचनाओं को बड़े बड़े संगीतज्ञों द्वारा प्रयोग किया जाता,बजाया जाता है।संगीत मासिक पत्रिका के आप सम्मानित स्थाई रचनाकार थे। धीरे धीरे कहानी,नाटक,एकांकी,कविता,गीत, ग़ज़ल की ओर भी रुझान बढ़ता गया। आप संगीत और साहित्य दोनों की साधना में लीन हो गए। मां सरस्वती की कृपा से संगीत साहित्य दोनों में सिद्ध हुए और यश ,कीर्ति प्राप्त कर रहे हैं। आपको संगीत समारोह में “संगीत शिरोमणि “के अलंकरण से अलंकृत किया गया। आपके हजारों शिष्य देश विदेश में भारतीय संगीत का परचम लहरा रहे हैं।आपको कलागुरु के नाम से सादर संबोधित किया जाता है। आपने तथा नाम यथा गुण “वेदमणि ” नाम को चरितार्थ किया है।
मुझे छठवीं कक्षा में गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी का सानिध्य ,शरण ,स्नेह एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ। गुरुजी शासकीय आदर्श माध्यमिक शिक्षा मंडल में शिक्षक पद पर आसीन थे।बहुत अनुशासित,अध्यापन की शैली अत्यंत ही प्रिय छात्रों के मध्य बहुत ही लोकप्रिय। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी की प्रमुख भूमिका। विद्यार्थियों को कविता,कहानी,नाटक,प्रहसन आदि से लेकर गायन,वादन,नृत्य संगीत के सभी विधाओं में आगे बढ़ चढकर प्रोत्साहित करना,सीखाना,स्वयं लिखना और तैयारी करवाना उनकी कला और संस्कृति के प्रतिसमर्पण तथा उनकी बहुआयामी प्रतिभा का परिचायक था ।उनके द्वारा तैयार किए गए विद्यार्थी चाहे वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हो या स्कूली शिक्षा में वे अग्रणी रहते,यश और पुरस्कार प्राप्त करते। मैं आज तक गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी के श्री चरणों का उपासक हूँ, उन्हीं की शिक्षा,अनुशासन,आदर्श और प्रेरणा ने मुझे यह गौरव पूर्ण जीवन दिया है।
गुरु जी के साथ संगीत गोष्ठियों,सभाओं एवं सम्मेलनों में आने जाने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा। तब यह भी अहसास हुआ इतने नम्र, अति साधारण, सामान्य वेशभूषा,आदर्श आचरण सरल स्वभाव के धनी गुरुजी वेदमणि सिंह ठाकुर जी कितने बड़े,महान संगीत साधक है उनकी यश और कीर्ति केवल अविभाजित मध्यप्रदेश में ही नहीं वरन पूरे भारत वर्ष में है। उनके पास जा कर कोई भी गरीब हो या अमीर उनसे निवेदन करता की हमारे यहां संगीत कार्यक्रम में आप सादर आमंत्रित हैं गुरु जी यह नहीं देखते कि वह अमीर है या गरीब ,कार्यक्रम छोटा है या बड़ा , कभी भी पैसे की बात नहीं करते,वे सहज सरल भाव से निमंत्रण स्वीकार कर लेते। यहां तक कि अतिथि सत्कार हेतु स्वागत गीत के अतिसाधारण कार्यक्रम के लिए अपने शिष्यों की टीम के साथ उपस्थित रहते । उनका केवल एक ही संकल्प, प्रतिबद्धता और समर्पण है ‘संगीत’ । भारतीय संगीत कला जन जन तक पहुंचे। संगीत ही उनका प्राण,जीवन, सबकुछ है।पहले छोटी छोटी महफ़िल, सभा व गोष्ठियों का चलन था। पांच दस गुणी जन बैठ कर रात रात भर भोर होते तक गाना बजाना होता उसका आनंद ही अलौकिक हुआ करता था। छोटे,बड़े और मूर्धन्य कलाकार गाते बजाते शिष्यगण उनको देखकर सीखते एक बड़ा ही सुंदर दृश्य होता,आनंद भी अद्भुत अलौकिक। यहीं से संगीत की समृद्ध परंपरा,धरोहर और विरासत विकसित होती। बड़े बड़े मूर्धन्य संगीतज्ञों व कलामर्मज्ञों का जन्म होता। आधुनिकता,चकाचौंध, और वर्तमान जटिल जीवन शैली ने बहुत कुछ छीन लिया है।
‘संगीत शिरोमणि’ कलागुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी का प्राण, जीवन, सब कुछ,केवल संगीत ही है। उन्हें घर,परिवार, बाल,बच्चे यहां तक कि स्वयं के जीवन से भी अधिक प्यारा ‘संगीत’ है। किसी राग , ताल की बंदिश को लेकर बैठे हैं तो दिन – रात , भूख – प्यास, गर्मी – ठंडी, स्वास्थ की कोई चिंता व फिक्र नहीं,जब तक वह सिद्ध नहीं होता उन्हें चैन नहीं मिलती। शासकीय शिक्षक पद से सेवानिवृत्त होने तक उनका घर खपरैल का था। उसी खपरैल के घर में अपने पूज्य पिताश्री जगदीश सिंह दीन मृदंगार्जुन द्वारा सन् 1934 में स्थापित श्री लक्ष्मण संगीत विद्यालय का संचालन भी करते हैं।बहुत बाद में उसे सीमेट का पक्का साधारण घर बनाया गया। बहुत ही साधारण सामान्य सीधा सरल जीवन शैली। लगभग सन् 1970 में एकबार उन्हें फिल्म डिविजन मुंबई से असिस्टेंट म्यूजिक डायरेक्ट का ऑफर मिला तब आपके पिताश्री मृदंगवादक जगदीश सिंह ‘ दीन ‘ मृदंगार्जुन जो संगीत ऋषि मुनि तुल्य थे ने यह कहकर मना कर दिया कि “संगीत एक तपस्या है, साधना है इसे हम जीविकोपार्जन का साधन नहीं बना सकते।” भारतीय संगीत के प्रति इतना पवित्र,उत्तम और श्रेष्ठ भावना वाले साधक विरले ही मिलते हैं।रायगढ़ में ही रहकर संगीत साहित्य की साधना और सेवा करते रहे। यही कारण है कि रायगढ़ में आज तक भारतीय संगीत की गंगा निरंतर गतिमान प्रवाहमान है।
सन् 1983 – 84 में रायपुर के सांसद सर्वोदयी नेता ने रायगढ़ संगीत कला के प्राचीन गौरवशाली इतिहास को स्मरण करते हुए यह जानने समझने और देखने आए कि वह परंपरा किस हालत में है।वह गौरवशाली संगीत की परंपरा,धरोहर , विरासत जीवित है या नहीं? अपने साथी लोक कलाकार लाला फूलचंद्र श्रीवास्तव के साथ संगीत साधक जगदीश मेहर के घर पहुंचे वहां सप्ताह में एक दो दिन छोटी बड़ी संगीत गोष्ठियां नियमित हुआ करती थी।उन्होंने देखा कि कलागुरु वेदमणि ठाकुर अपने शिष्य मंडली के साथ कुछ रियाज़ कर रहे थे। सांसद केयूर भूषण जी को बहुत सुखद अनुभूति हुई। यह देख,जानकर कि”संगीत शिरोमणि”कला गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी श्री लक्ष्मण संगीत विद्यालय का सफल संचालन कर रहे हैं और हजारों शिष्य तैयार किए हैं जो देश विदेश में भारतीय संगीत कला का नाम रौशन कर रहे हैं। वहीं कत्थक नृत्य में नृत्याचार्य गुरु पंडित फिरतूदास वैष्णव जी वैष्णव संगीत विद्यालय का कुशल संचालन कर रहे हैं।।रायगढ़ में आज भी संगीत कला साहित्य का एक अच्छा वातावरण है ।उनका हृदय आनंदित हो उठा।तब केयूर भूषण जी ने रियासतकालीन गणेश मेला को याद करते हुए उसे पुनर्जीवित करने की इच्छा जाहिर की और एक बैठक आयोजित कर श्री चक्रधर ललित कला केंद्र की स्थापना की गई। जिसके प्रथम संस्थापक अध्यक्ष पद्मश्री,साहित्य वाचस्पति छायावाद के प्रवर्तक पंडित मुकुट धर पाण्डेय जी ,सचिव जगदीश मेहर,सहसचिव गणेश कछवाहा,प्रचार सचिव डॉ बलदेव साव एवं कोषाध्यक्ष मनहरण सिंह ठाकुर हुए। सन् 1985 में 10 दिवसीय गणेश मेला का पुनरुद्धार हुआ । सांसद केयूर भूषण जी प्रयासों से भारत सरकार द्वारा सन् 1986 से भारतीय शास्त्रीय संगीत का दो दिवसीय शासकीय कार्यक्रम ‘चक्रधर समारोह’ स्वीकृत किया गया। इस प्रकार दो दिवसीय शासकीय कार्यक्रम और आठ दिवसीय ललित कला केंद्र द्वारा कुल दस दिवसीय गणेश मेला चक्रधर समारोह की शुरुआत हुई।जो आज अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त देश व छत्तीसगढ़ राज्य का गौरवशाली व प्रतिष्ठित समारोह है। गणेश मेला चक्रधर समारोह के प्रेरक सांसद केयूर भूषण जी और प्रमुख शिल्पी “संगीत शिरोमणि”कला गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी और नृत्याचार्य गुरु पंडित फिरतूदास वैष्णव जी ही हैं। गणेश मेला चक्रधर समारोह के संस्थापक सदस्यों में बहुत से संगीत साधक साहित्य मनीषी और संस्कृति कर्मी शामिल हैं।”संगीत शिरोमणि”कला गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी और नृत्याचार्य गुरु स्व पंडित फिरतूदास वैष्णव जी की सतत् तपस्या और साधना के कारण ही तमाम उतार चढ़ाव, कठिन संघर्षों, जटिलताओं, और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद रायगढ़ की संगीत परम्परा आज भी निर्बाधगति से प्रवाहमान है तथा निरंतर समृद्ध व उन्नतशील है।
“संगीत शिरोमणि”कला गुरु वेदमणि सिंह ठाकुर जी सम्मान अलंकरण या पुरस्कार के लिए कभी भी स्वयं आवेदन नहीं करते। उन्हें सम्मानित कर संस्थाएं या सरकार स्वयं को सम्मानित व गौरवान्वित महसूस करते ।गुरु जी को राज्य सरकार द्वारा चक्रधर सम्मान से सम्मानित किया गया। गुरु जी का स्थान सम्मान,पुरस्कार, मान प्रतिष्ठा से बहुत ऊंचा है। सम्मान,अलंकरण और पद प्रतिष्ठा आपके डेहरी में सर झुकाए खड़े रहते हैं।आप अपनी संगीत कला साहित्य की तपस्या ,साधना व सेवा में लीन रहते । चौबीसों घंटे रात हो या दिन उनके मनमस्तिष्क में राग, ताल, धुन, बंदिशे, साहित्य, ग़ज़ल यही गूंजता रहता हमेशा नए धुन राग साहित्य कविता या ग़ज़ल की रचना करते और शिष्यों को रियाज़ करवाते यही उनकी दिनचर्या का हिस्सा हो गया। जिसे आपके श्री चरणों का आसरा ,सानिध्य और आशीर्वाद मिल जाता वह धन्य हो जाता। आपके कर कमलों से सम्मान पाने को शिष्य लालायित होते अपने आप को बहुत सौभाग्य शाली मानते। जब गुरुजी के शिष्यों को राज्य या राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार या सम्मान प्राप्त होता और शिष्य जब अपने गुरु के श्रीचरणों में भेंट करते तब अपने शिष्यों को शुभाशीष देते हुए कहते “अच्छा है अभी और अधिक साधना (रियाज़ )करो इससे और भी आगे बढ़ो कभी रियाज़ नहीं छोड़ना। संगीत तपस्या है साधना है , ईश्वर प्राप्ति का भी एक सशक्त माध्यम है।मां सरस्वती की विशेष कृपा है।
गुरुजी लगभग 90 बसंत पार कर रहे हैं। स्वास्थ में थोड़ा उतार चढ़ाव होता रहता है लेकिन संगीत साधना सतत जारी है। गुरुजी के बारे में लिखना बहुत कठिन कार्य है। मुझे गुरुजी का स्नेह,आशीर्वाद आज तक प्राप्त हो रहा है। गुरु जी के विषय में कुछ कहना या लिखना मेरे लिए काफी कठिन हो जाता है। क्या लिखूं, क्या छोडूं ? गुरु जी वास्तव में अलख हैं। पूरा नहीं लिखा जा सकता। जितना लिखें वह कम ही है। अतः मैं अपनी लेखनी को यहीं विश्राम देता हूं। मां सरस्वती और गुरुजी के श्री चरणों में सादर समर्पित करते हुए सादर नमन करता हूं।