कांकेर. दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में 90 के दशक में दो बड़े बदलाव हुए. एक उदारीकरण की नीति लाई गयी और दूसरा ग्राम स्वराज की परिकल्पना को साकार करने का प्रयास हुआ.
उदारीकरण की नीति के तहत देश के कई कानूनों में शिथिलता लाते हुए उद्योग धंधों को बढ़ावा देने के नाम पर कठोर नियमों में बदलाव किए गए. साथ ही सत्ता का विकेंद्रीकरण कर ग्राम स्वराज की स्थापना के हेतु संविधान में संशोधन करते हुए पंचायती राज व्यवस्था को पूरे देश में लागू किया गया.
गांधी जी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना के अनुसार सशक्त ग्राम सभा की स्थापना हेतु सन 1992 में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम से जैसे केंद्र में लोकसभा, राज्य में विधान सभा/विधान परिषद का प्रावधान है, उसी प्रकार गांव में ग्राम सभा को जगह दी गई. संशोधन में संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची भी जोड़ी गयी जिसमे 29 विषयों पर कार्य करने के अधिकार ग्राम सभा और पंचायतो को सौंप दिए गए. लेकिन जिस तरह आर्थिक उदारीकरण के लिए कानूनों में बदलाव किये गए वैसे इन 29 विषयों के अधिकार पंचायतो को स्थानांतरित करने के लिए जितने कानूनों में बदलाव की आवश्यकता थी वह नहीं हो सके.
पांचवी अनुसूची क्षेत्रों के लिए अलग संवैधानिक व्यवस्था :-
ग्राम स्वराज की स्थापना के लिए जब ऐसा प्रावधान किया जा रहा था तब उस समय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243 (ड.) में यह कहा गया कि यह पंचायती राज व्यवस्था पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में लागू नहीं होगी l इसी प्रकार नगरीय निकाय की व्यवस्था, जिसके तहत नगर पालिका, नगर निगम, नगर पंचायत इत्यादि व्यवस्था शामिल है, वह भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243(य)(ग) के अनुसार पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में लागू नहीं करने का प्रावधान रखा गयाl
अपवादों और उपन्तारणों के साथ पंचायती राज व्यवस्था को पांचवी अनुसूची क्षेत्र में लागू करना :-
1993 की पंचायती राज व्यवस्था को पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में भी विस्तार करने की बात संविधान के अनुच्छेद 243(ड.) के पैरा 4 के उप पैरा (ख) में कही गई है. इसके अनुसार भारत की संसद को पंचायती राज व्यवस्था को अपवादों और उपन्तारणों के साथ पांचवी अनुसूची क्षेत्र में विस्तारित करने की शक्ति दी गयी है. इसका मतलब यह है कि पंचायती राज व्यवस्था अनुसूचित क्षेत्रों में सशर्त लागू होगी और यह शर्ते भारत की संसद तय करेगी. इन्ही शर्तों को संसद ने पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 बना कर तय किया जिसे हम आज पेसा कानून के नाम से जानते हैं, इसके कारण ही सामान्य क्षेत्रों की पंचायती राज व्यवस्था और अनुसूचित क्षेत्रों की पंचायती राज व्यवस्था में काफी अन्तर है.
पेसा के तहत ग्राम सभा और पंचायतो को प्रशासन और नियंत्रण की शक्ति :-
संविधान की पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के सम्बन्ध में पेसा कानून में प्रावधान किया गया है. अनुसूचित जनजातियाँ प्राचीन रीति-रिवाजों और प्रथाओं की एक सुव्यवस्थित प्रणाली के माध्यम से अपने प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करते रहे हैं और अपने निवास स्थान में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को संचालित करते रहे हैं। इस अभूतपूर्व सामाजिक परिवर्तन के युग में आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक-आर्थिक परिवेश को छेड़े या नष्ट किए बिना उन्हें विकास के प्रयासों की मुख्य धारा में शामिल करने की अनिवार्य आवश्यकता भारत की संसद द्वारा महसूस की गई और अनुसूचित क्षेत्रों में पेसा कानून के द्वारा ग्राम सभाओं और पंचायतों को लोगों की परंपराओं और रीति-रिवाजों को सुरक्षित रखने और संरक्षित करने के अधिकार दिए गए। साथ ही उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधन और विवाद समाधान और स्वामित्व के प्रथागत तौर-तरीके, गौण खनिज, लघु वन उपज का स्वामित्व, आदि को भी मान्यता पेसा में दी गयी।
पेसा से असंगत कोई नया कानून नहीं :-
पेसा कानून की में स्पष्ट रूप से लिखा है कि राज्य का विधान मंडल ऐसा कोई भी कानून नहीं बनाएगा जो धारा 4 के (क) से (ण) तक के प्रावधानों से असंगत हो। जब ऐसा है तो विधानसभा में बनने वाले सभी कानून, जो अनुसूचित क्षेत्र में लागू होने वाले होंगे, उन को बनाने के लिए या बनाने से पहले अनुसूचित क्षेत्रों की ग्राम सभाओं से परामर्श करना / सहमति लेना अनिवार्य है। दुःख की बात है की आज तक बने सभी कानून बिना परामर्श/सहमति के सीधे लागू किये जा रहे है जो कि पेसा की अंतरात्मा पर चोट है।
पेसा अनुरूप अन्य कानूनों में बदलाव:-
पेसा कानून की धारा पांच के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में जो प्रवृत विद्यमान कानून थे उन सारे कानूनों को पेसा में दिए गए प्रावधानों के अनुसार संशोधित करना था। जो भी कानून के प्रावधान पेसा से असंगत थे उन्हें भी एक साल के भीतर बदल कर पेसा अनुरूप परिवर्तन व संशोधन के साथ लागू किया जाना चाहिए था। ऐसा संशोधन करते वक़्त वहां के रहने वाले जनजातीय समूहों की परम्परा और व्यवहारों को भी ध्यान में रखना था। छत्तीसगढ़ में हम देखे तो आबकारी अधिनियम, पंचायत राज अधिनियम, भू-राजस्व संहिता, इत्यादि गिने-चुने 5-6 कानूनों में ही संशोधन किए गए। लेकिन अधिकांश में स्थानीय जनजातीय समूहों की परम्परा और व्यवहारों को अनदेखा कर दिया गया।
ग्राम सभा सर्वोच्च :-
पिछले 27 सालों में अभी तक ग्राम/जनपद/जिला पंचायत को ग्रामसभा से बड़ा माना जाता रहा है जबकि ऐसा है नहीं। ग्राम सभा सर्वोपरी है। ग्राम पंचायत सिर्फ उसके द्वारा लिए गए निर्णय का क्रियान्वयन करने वाली कार्यकारी समिति है। लेकिन यह बात ग्रामसभा को ही पता नहीं है। जागरूकता की कमी के चलते ग्राम सभा आज भी उच्च स्तर की पंचायत संस्थाओं के माध्यम से निर्देशित और संचालित होती है जो कानून के विपरीत है।
इस कार्यक्रम मे प्रमुख भूमिका स्थानीय क्षेत्रों की महिलाओं ,शकुंतला चौहान, गणेश वती दीदी,एवम समस्त आदिवासी महिला महा पंचायत,श्री किसान नेता हरिहर पटेल जी के साथियों, जन चेतना रायगढ छत्तीसगढ़ के सदस्य राजेश त्रिपाठी, सविता रथ, राजेश गुप्ता, ज्योति सिदार, आरती राठिया, भोजमती राठिया, पार्वती भगत, पद्मनाभ प्रधान, शिव पटेल प्रह्लाद राठिया, रामेश्वर समरथ, श्री कार्तिक राम पोर्ते जी बजरमुडा़ ब्लाक प्रभारी ,सूरज यादव जी छत्तीसगढ़ एकता मंच के प्रदेश अध्यक्ष ,श्री सुरेन्द्रा पटनायक जी जिला कार्यकारि अध्यक्ष, नेशनल फ्रंट ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन के सभी साथियों ने भाग लेकर पेसा अधिकार कानून नियमों पर जानकारी सांझा किया गया तथा आगामी ग्राम सभा को मजबूत करना पेसा पर ठोस कार्य करने पर बात रखा