10 सालों में महिलाओं के खिलाफ अपराध में 75 फीसदी तक वृद्धि, आखिर कैसे बचाएं बेटियां?

by Kakajee News

अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने का उद्देश्य समाज को बालिकाओं के सामने आने वाली चुनौतियों और उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए जागरूक करना है, लेकिन कितने जागरूक हैं हम बालिकाओं की सुरक्षा के लिए? आधी आबादी कही जाने वाली महिलाएं हमारे देश में तकरीबन पिछले दो दशकों से घरों से बाहर निकल रही हैं। हर क्षेत्र में अपनी पहचान कायम कर रही हैं। बिना किसी बंदिश के जिंदगी जीने और खुली हवा में सांस लेने की कोशिश कर रही हैं। इसके बावजूद पुरुष प्रधान समाज में सदियों से चली आ रही असहाय और पराश्रित छवि से वे उबर नहीं पाई हैं। साक्षी हत्याकांड जैसे मामले क्रूरता और नृशंसता का प्रमाण हैं। दिल दहला देने वाली ये वारदातें मौजूदा सामाजिक-सांविधानिक व्यवस्था पर प्रहार भी करती हैं।

हालांकि आज समाज में हर स्तर पर बहुमुखी विकास और लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार आया है, लेकिन समाज के तथाकथित ठेकेदार बने बैठे लोग तरक्की की राह में अड़चनें भी पैदा करते हैं। कई बार बढ़ते आक्रोश और दबदबा कायम रखने की प्रवृत्ति के चलते महिलाओं को शारीरिक-मानसिक तौर पर प्रताड़ित करने से भी वे पीछे नहीं रहते हैं। आए दिन टीवी, अखबारों और सोशल मीडिया पर महिलाओं के साथ क्रूर हिंसा की खबरें इसका प्रमाण हैं। दुखद यह है कि आमजन अपने सामने होते अपराध के खिलाफ कोई प्रतिक्रिया लेने के बजाय चुपचाप कन्नी काटकर निकल जाता है। ये घटनाएं लड़कियों के प्रति समाज की बढ़ती असंवेदनशीलता की ओर इशारा करती हैं।

बचपन से सीखा रहे, रूल ऑफ लॉ पुरुषों के हक
सदियों से समाज पितृसत्तात्मक रहा है, जिसमें मूलतः सारी सत्ता या रूल ऑफ लॉ पुरुषों के हक में है। लड़कों के दिमाग में बचपन से ही घर का मुखिया और महिलाओं को कमतर समझने की भावना भर दी जाती है। इससे आगे चलकर लड़के, महिला की प्रताड़ना को स्वीकृति देने लगते हैं। स्थिति ज्यादा दुखदायी तब हो जाती है, जब प्रताड़ना झेलने के बावजूद समाज महिलाओं का साथ नहीं देता। महिला अगर अपराध के खिलाफ लड़ने का फैसला करती भी है तो परिवार उसे डांट-डपटकर चुप करा देता है। असल में, समाज में घट रही इन वारदातों के पीछे परिवार भी जिम्मेदार है।

महिला ही खुद की स्थिति की जिम्मेदार
समाज में ‘विक्टिम ब्लेमिंग‘ का चलन महिलाओं की स्थिति को अधिक दयनीय बनाता है। समाज की मानसिकता है कि वह किसी भी तरह के अपराध या महिला पर हो रहे अत्याचार के लिए महिला को ही जिम्मेदार मानता है। इसी मानसिकता के चलते अगर महिला के साथ कोई ज्यादती हो रही है या उसके साथ कोई मार-पीट या सड़क पर छेड़खानी कर रहा है तो लोग आंखें फेरकर निकल जाते हैं। दूसरी तरफ महिलाओं को समाज में दोयम या निचला दर्जा दिया जाना, पुरुषों द्वारा किए जाने वाले मारपीट और अत्याचार को सहन करने की सामाजिक स्वीकृति मिलना बढ़ते महिला अपराध की बड़ी वजह है।

महिला अपराध में 23 फीसदी को ही सजा
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के हिसाब से 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। मोटे तौर पर बीते 10 सालों में महिलाओं के विरुद्ध अपराध में 75 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज हुई है। चुनिंदा मामलों को छोड़ दिया जाए तो महिला उत्पीड़न करने वाले पुरुषों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं हो पाती या फिर अपराधी करार होने के बावजूद सालो-साल सजा मुहैया नहीं हो पाती। नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, मौजूदा हालात में महिला अपराध के कुल मामलों में केवल 23 प्रतिशत को ही सजा मिल पाती है।

कुछ जरूरी कदम

जघन्य अपराध करने वाले अपराधी कुछ समय बाद समाज में बेखौफ घूमते नजर आते हैं। न तो समाज उनका बहिष्कार करता है और न ही कानून उन्हें किसी तरह का कठिन दंड दे पाता है। सदियों से चली आ रही सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव आना तो असंभव-सा जान पड़ता है। लिहाजा बढ़ते महिला अपराधों को रोकने का दायित्व समाज को ही लेना होगा।

शुरुआत घर से

घर समाज का अभिन्न हिस्सा है। अगर हमें अगली पीढ़ी में बदलाव लाना है तो बच्चों के दिलो-दिमाग में यह मानसिकता विकसित करनी होगी कि समाज में लड़का-लड़की बराबर हैं। लड़के अगर वंश के अग्रज हैं, तो लड़कियां वंश की जन्मदात्री हैं। लड़कों को लड़कियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना और उनकी सुरक्षा के प्रति सजग रहना भी सिखाना होगा, तभी वे बड़े होकर महिला अपराध रोकने में सहयोग दे सकेंगे। वहीं लड़कियों को बचपन से ही दूसरों की अपेक्षाओं-आकांक्षाओं के प्रति दृढ़ता से विरोध करना या किसी के भी गलत व्यवहार के खिलाफ प्रतिक्रिया करना सिखाना चाहिए। आत्मसुरक्षा के विभिन्न तरीके सिखाने चाहिए, ताकि वे विरोधी परिस्थितियों के प्रति पूरी तरह सतर्क रहें और खुद को सुरक्षित रख सकें।

समाज का दायित्व
महिला अपराध को रोकने की जिम्मेदारी समाज के हर व्यक्ति की है। पुरुष की दरिंदगी का शिकार होती महिला की सुरक्षा के लिए समुचित कदम उठाने चाहिए। तमाशबीन न बनकर असहाय महिला के रखवाले बनना चाहिए। यह सच है कि पुलिस सूचना के अभाव में घटना स्थल पर देरी से पहुंचती है, लेकिन जरूरत है आस-पास के लोगों को महिला की मदद के लिए आगे आने की, तुरंत एक्शन लेने की।

अगर 4-5 लोग भी मिलकर हत्यारे को रोकने का प्रयास करें तो निश्चित ही सफल हो सकते हैं और किसी की जान बच सकती है। उन्हें देखकर संभव है, दूसरे लोग भी उनके साथ हो लें और अपराधी को काबू में कर लें। आज कानूनी प्रक्रिया में काफी बदलाव आया है। पुलिस महिला अपराध की सूचना देने वाले व्यक्ति को शक के घेरे में नहीं लेती। अब व्यक्ति अपनी पहचान गुप्त रखकर भी घटना की सूचना दर्ज करा सकता है। समाज में बढ़ते महिला अपराध को रोकना है तो अपराधी के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने की हिम्मत तो जुटानी ही होगी।

हमें ही तो बदलना है ‘समाज’
सेंटर फॉर सोशल रिसर्च, दिल्ली की डायरेक्टर डॉ. रंजना कुमारी के मुताबिक, आज जरूरत है समाज में लोगों को इन साइकोपैथ व्यक्ति का शिकार होती पीड़िता की हरसंभव मदद करने की। अगर कहीं किसी भी महिला को किसी भी तरह से प्रताड़ित किया जा रहा है तो लोगों को तुरंत सामने आना चाहिए और एकजुट होकर अपराधी का प्रतिकार करने हेतु कदम उठाने चाहिए। सही मायने में तभी इंसान कहलाएंगे। सिर्फ तमाशा देखने और आंखें मूंद कर पतली गली से निकल लेने से कभी यह समाज महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं बन पाएगा।

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